दिन कैसे गुज़र जाता है -
फेसबुक पर बदलाव की हवाएँ चलती हैं
फेमिनिज्म की, आम आदमी की
मेरा मन उनसे छुआ
हिंदी फ़िल्म की नायिका की साड़ी सा
फड़फड़ाता, मचलता
चील जैसे पंख निकाल
लम्बी उड़ान भरने को ,
कुछ करने को।
लैपटॉप पे फटाफट नया नोट खोल लेती हूँ
डेस्कटॉप पर ही - फोल्डर बनाने का सब्र किसे ?
चार लाइनें , ज़बरदस्त मैनिफेस्टो की !
फिर याद आता है कि बालों में तेल लगाना है
और फ्लिप-कार्ट पे खरीदी किताबें धूल खा रहीं हैं
लिंक्ड इन पे तो सदियों से किसी से मतलबी बातें नहीं की
ऐसे कैसे बिज़नस करोगी ?
सच ही कहती थी माँ
ये बिज़नस-विज़नेस हमारे स्कोलरली परिवार के बस का नहीं
स्कोलरली से याद आया, किताबें! जो धूल खा रहीं थीं
चलो यहीं से शुरू करती हूँ
पहला चैप्टर - टेलरिस्म पर
"टेलर के मशीनीकरण ने
संस्थानों के साथ इंसानों को भी मशीन बना दिया"
हाय राम! क्या होगा समाज का!
समाज से याद आया - फेसबुक! और अधूरा मैनिफेस्टो!
उफ़! एक दिन में अड़तालीस घंटे क्यूँ नहीं होते!
समाज भी बदलना है, धंधा भी चलाना है,
किताबें पढ़ना तो हमारी पारिवारिक ज़िम्मेदारी है।
फड़फड़ाहट मन से उठकर दिमाग पे हावी होती,
चील की उड़ान बन जाती कौवे की काँय - काँय !
दिमाग शांत करने का एक ही उपाय है - चाय
चाय कि चुस्कियाँ परत-परत
दिमाग के जालों को साफ़ कर देती हैं
इस देश के कई आंदोलनों , खिलाफ़तों ,
आविष्कारों, नीतियों
में वाघ बकरी और लिप्टन का योगदान
अनदेखा पर कड़क है (कड़वा नहीं)
कुछ परतें मेरे दिमाग से हटतीं हैं ,
और सहसा याद आती है किसी ग्यानी व्यक्ति,
जिनका नाम याद रखना मैंने ज़रूरी नहीं समझा,
की बात, "आल राइटिंग इस पोलिटिकल"
तो बस! लिख देती हूँ मैं भी
कविता सा कुछ
ये दबाया "पोस्ट", ये हुआ पोलिटिकल एक्शन !
ज़िम्मा ख़त्म! पैसा हज़म!
अब जाती हूँ बालों में तेल लगाने